Saturday 25 July 2015

वेदों में सिंहस्थ महाकुंभ का महत्व

वैदिक जीवन पद्धति कुंभ जैसे आयोजनों का आदर्श रही है। देश को सांस्कृतिक एकसूत्रता में बांधने के लिए चारों कोनों में पीठों की स्थापना करने वाले आदिशंकराचार्य भी वैदिक जीवन के ही प्रचारक थे, इसलिए यह जानना दिलचस्प होगा कि कुंभ जैसे आयोजनों के बारें में वेदों में क्या कहा गया है। वैदिक स्थापनाओं से यह तो स्पष्ट है कि ऐसे आयोजन तब भी होते थे और बाद में आदिशंकराचार्य ने फिर से इस परम्परा को आगे बढ़ाया। वैदिक संस्कृति में जहां व्यक्ति की साधना, आराधना और जीवन पद्धति को परिष्कृत करने पर जोर दिया है, वहीं पवित्र तीर्थस्थलों और उनमें घटित होने वाले पर्वों व महापर्वों के प्रति आदर, श्रद्धा और भक्ति का पावन भाव प्रतिष्ठित करना भी प्रमुख रहा है। विश्व प्रसिद्ध सिंहस्थ महाकुंभ एक धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महापर्व है, जहां आकर व्यक्ति को आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण की अनुभूति होती है। सिंहस्थ महाकुंभ महापर्व पर देश और विदेश के भी साधु-महात्माओं, सिद्ध-साधकों और संतों का आगमन होता है। इनके सानिध्य में आकर लोग अपने लौकिक जीवन की समस्याओं का समाधान खोजते हैं। इसके साथ ही अपने जीवन को ऊध्र्वगामी बनाकर मुक्ति की कामना भी करता है। मुक्ति को अर्थ ही बंनधमुक्त होना है और मोह का समाप्त होना ही बंधनमुक्त होना अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पुरुषार्थों में मोक्ष ही अंतिम मंजिल है। ऐसे महापर्वों में ऋषिमुनि अपनी साधना छोड़कर जनकल्याण के लिए एकत्रित होते हैं। वे अपने अनुभव और अनुसंधान से प्राप्त परिणामों से जिज्ञासाओं को सहज ही लाभान्वित कर देते हैं। इस सारी पृष्ठभूमि का आशय यह है कि कुंभ-सिंहस्थ महाकुंभ जैसे आयोजन चाहे स्वरस्फूर्त ही हों, लेकिन वह उच्च आध्यात्मिक चिन्तन का परिणाम है और उसका सुविचारित ध्येय भी है। ऋग्वेद में कहा गया है -
जधानवृतं स्वधितिर्वनेव स्वरोज पुरो अरदन्न सिन्धून्।
विभेद गिरी नव वभिन्न कुम्भभा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः।।
कुंभ पर्व में जाने वाला मनुष्य स्वयं दान-होमादि सत्कर्मों के फलस्वरूप अपने पापों को वैसे ही नष्ट करता है जैसे कुठार वन को काट देता है। जैसे गंगा अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुंभ पर्व मनुष्य के पूर्व संचित कर्मों से प्राप्त शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन (कच्चे) घड़े की तरह बादल को नष्ट-भ्रष्ट कर संसार में सुवृष्टि प्रदान करता है।
कुम्भी वेद्या मा व्यधिष्ठा यज्ञायुधैराज्येनातिषित्का। (ऋग्वेद)
अर्थात्, हे कुम्भ-पर्व तुम यज्ञीय वेदी में यज्ञीय आयुधों से घृत द्वारा तृप्त होने के कारण कष्टानुभव मत करो।
युवं नदा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम्।
करोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भां असिंचतसुरायाः।। (ऋग्वेद)
कुम्भो वनिष्ठुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्रे योग्यांगमर्भो अन्तः।
प्लाशिव्र्यक्तः शतधारउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधं पितृभ्यः।। (शुक्ल यजुर्वेद)
कुम्भ-पर्व सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इस लोक में शारीरिक सुख देने वाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों को देने वाला है।
आविशन्कलशूं सुतो विश्वा अर्षन्नाभिश्रिचः इन्दूरिन्द्रायधीयतो। (सामवेद)
पूर्ण कुम्भोडधि काल आहितस्तं वै पश्चामो बहुधानु सन्तः।
स इमा विश्वा भुवनानिप्रत्यकालं तमाहूः परमे व्योमन। (अथर्ववेद)
हे सन्तगण! पूर्णकुम्भ बारह वर्ष के बाद आया करता है, जिसे हम अनेक बार प्रयागादि तीर्थों में देखा करते हैं। कुम्भ उस समय को कहते हैं जो महान् आकाश में ग्रह-राशि आदि के योग से होता है।
चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि। (अथर्ववेद)
ब्रह्मा कहते हैं-हे मनुष्यों! मैं तुम्हें ऐहिक तथा आयुष्मिक सुखों को देने वाले चार कुम्भ पर्वों का निर्माण कर चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में प्रदान करता हूं।
कुम्भीका दूषीकाः पीचकान्। (अथर्ववेद)
वस्तुतः वेदों में वर्णित महाकुम्भ की यह सनातनता ही हमारी संस्कृति से जुड़ा अमृत महापर्व है जो आकाश में ग्रह-राशि आदि के संयोग से ……………………….. की अवधि में उज्जैन में शिप्रा के किनारे मनाया जा रहा है।
माधवे धवले पक्षे सिंह जीवत्वेजे खौ।
तुलाराशि निशानाथे स्वातिभे पूर्णिमा तिथौ।
व्यतीपाते तु सम्प्राप्ते चन्द्रवासर-संचुते।
कुशस्थली-महाक्षेत्रे स्नाने मोक्षमवाच्युयात्।
अर्थात् जब वैशाख मास हो, शुक्ल पक्ष हो और बृहस्पति सिंह राशि पर, सूर्य मेष राशि पर तथा चन्द्रमा तुला राशि पर हो, साथ ही स्वाति नक्षत्र, पूर्णिमा तिथि व्यतीपात योग और सोमवार का दिन हो तो उज्जैन में शिप्रा स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। विष्णु पुराण में कुम्भ के महात्म्य के संबंध में लिखा है कि कार्तिक मास के एक सहस्र स्नानों का, माघ के सौ स्नानों का अथवा वैशाख मास के एक करोड़ नर्मदा स्नानों का जो फल प्राप्त होता है, वही फल कुम्भ पर्व के एक स्नान से प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार एक सहस्र अश्वमेघ यज्ञों का फल या सौ वाजपेय यज्ञोें का फल अथवा सम्पूर्ण पृथ्वी की एक लाख परिक्रमाएं करने का जो फल होता है, वही फल कुम्भ के केवल एक स्नान का होता है।

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