Thursday 9 April 2015

आस्था एवं संस्कृति का विराट संगम: सिंहस्थ कुंभ

कुंभ पौराणिक काल से चली आ रही विशिष्ट भारतीय परम्परा है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक के श्रद्धालुओं संतों साधकों एवं सम्प्रदायाचार्यों को स्वत: खींच लाता है। गंगा-गोदावरी का जल स्वयं में अमृत है। सूर्य एवं चन्द्र की किरणों का प्रभाव कुंभीय गृहों के संयोग से यह अमृत-तुल्य हो जाता है। कुंभ वस्तुत: ज्ञान और वैराग्य का प्रतीक है। ज्योतिष गणना के अनुसार चार स्थानों पर कुंभ का आयोजन होता है। कुंभ पर्व वर्ष के अंतराल में क्रमश: हरिद्वार प्रयाग नासिक एवं उज्जैन में प्रत्येक स्थान पर 12 वर्षों के बाद आता है। बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में प्रविष्ट होने पर नासिक में गोदावरी तट पर कुंभ पर्व का आयोजन होता है। यह सिंहस्थ कुंभ कहलाता है। एक और ज्योतिष विकल्प है-बृहस्पति सूर्य एवं चन्द्र जब कर्क राशि में प्रविष्ट होते हैं और अमावस्या का दिन हो तो भी गोदावरी के तट पर कुंभ पर्व होता है। इस वर्ष 27 अगस्त को यही योग है। 
प्रयाग ज्ञान अर्थात प्रकाश की दिशा है। यहां सूर्य (ज्ञान) का उदय होता है। नासिक दक्षिण दिशा का प्रतीक है। यह यम की दिशा है और तीक्ष्ण प्रकाश से युक्त है। यहां ज्ञान विस्तार को प्राप्त होता है। उज्जैन पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। यहां ज्ञान का अस्त अर्थात ज्ञान आत्मसात होता है। हरिद्वार उत्तर दिशा हिमालय के समीप तपोभूमि का प्रतीक है। यहां ज्ञान अदृश्य अर्थात समाधिस्थ होता है। 
सामान्यत: कुंभ का अर्थ घड़ा होता है परंतु इसका तात्विक अर्थ कुछ और ही है। घड़े के अर्थ में भी यह लोकजीवन के मांगलिक कार्यों का पर्याय बन गया है। हिंदू संस्कृति में कोई भी मांगलिक कार्य बिना कलश के संभव नहीं होता और यह कलश घड़ा अर्थात कुंभ का प्रतीक है। कलश के मुख में विष्णु कंठ में रुद्र मूल में ब्रह्मा मध्य में मातृगण ,अंतस्थल में समस्त सागर पृथ्वी में निहित सप्तद्वीप चारों वेदों का समन्वयात्मक स्वरूप विद्यमान है। कुंभ सदा-सर्वदा से पूज्य रहा है। इसे पाप-पुण्य एवं लोकजीवन में मंगल की कामना से जोड़ा गया है। 
कुंभ के अनेक पर्याय हैं। कुंभ का अर्थ है-घट शरीर पेट कुंभ समुद्र पृथ्वी सूर्य एवं विष्णु। घट समुद्र नदी ,सरोवर कूप आदि सभी कुंभ के प्रतीक हैं। कुंभ हमारी समस्त संस्कृतियों का संगम है कुंभ एक आध्यात्मिक चेतना है। पवित्र नदियां मानव जीवन की समरसता की प्रतीक हैं एवं मानव शरीर में प्रवाहित होने वाले जल तत्व का बोध कराती हैं। शरीररूपी घर में पंचतत्व के बिना कुछ भी संभव नहीं है। अग्नि वायु जल पृथ्वी एवं आकाश तत्व यही शरीररूपी घट है। इसी को निर्गुणोपासक संत कबीर ने फूटा कुंभ जल जलहिं समाना कहकर स्पष्ट किया है। 
कुंभ में समस्त तीर्थ देव एवं समस्त भूत समाहित हैं। कुंभ शब्द का संबंध पौराणिक आख्यानों के आधार पर पर देव-दानव संवाद से स्थापित किया गया है। किंतु लौकिक जीवन में यदि कुंभ को उत्तर एवं दक्षिण भारत का सेतु कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कुंभ पर्व दक्षिण भारत में कुभ कोणम के नाम से लोकप्रिय है। प्रयाग में माघ मेले की ही भांति प्रतिवर्ष सामान्य मखम् उत्सव तथा 12 वर्षों में महामखम् उत्सव मनाया जाता है। जिसमें पूरे देशभर से लोग आते हैं। लाखों लोग यहां महामखम् तालाब में स्नान करते हैं और दक्षिण भारत का कुंभ पर्व मानते हैं। कुंभ कोणम का संस्कृत नाम कुंभ घोणम् है। पुराणों में कथा आती है कि ब्रह्माजी ने अमृत भरकर एक कुंभ रखा था उस कुंभ की नासिका (कोण) अर्थात मुख के समीप एक छिद्र में से अमृत रिसकर बाहर निकल गया और उससे वहां की कोस तक की जमीन भीग गई। 
कुंभ से संबंधित अमृत-मंथन की कथा जनमानस में अधिक लोकप्रिय है। देवासुर संग्राम की यह कथा देवी एवं आसुरी शक्ति के परस्पर द्वन्द्व का प्रतीक है। देव-दानवों द्वारा परस्पर सहयोग से किए गए सागर-मंथन से 14 रत्न निकले। सारे रत्न देवताओं ने आपस में बांट लिए। अंत में भगवान धन्वन्तरि अमृत-कुंभ लेकर प्रकट हुए। दोनों ओर खींचतान मच गई। भगवान विष्णु ने इस संकट को टालने के लिए स्वयं मोहिनी रूप धारण किया और इंद्रपुत्र जयंत को अमृत कलश सौंपा। उसकी रक्षा का भार उन्होंने सूर्य चन्द्र एवं बृहस्पति को दिया। सूर्य ने कलश को फूटने से बचाया चन्द्र ने अमृत को छलकने से एवं बृहस्पति ने उसे भूमि पर गिरने से बचाया। जयंत द्वारा अमृत कलश लेकर भागने के क्रम में हरिद्वार प्रयाग नासिक एवं उज्जैन में अमृत कलश को रखने से अमृत की बूंदे छलकने के कारण ये स्थल मुख्य तीर्थ बन गए। इन स्थानों पर सूर्य चन्द्र एवं बृहस्पति तथा कुंभ मेष एवं सिंह राशियां कुंभ पर्व का द्योतक बन गईं और गृहों की सहभागिता के कारण कुंभ पर्व ज्योतिष पर्व बन गया। जयंत को अमृत कलश स्वर्ग ले जाने में 12 दिन का समय लगा था। देवों का एक दिन मनुष्य के एक वर्ष के बराबर होता हे। यही कारण है कि ग्रहीय स्थिति के क्रम में कुंभ पर्व 12 वर्ष बाद लगता है। यह पर्व ही मेले का पर्याय है।

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