Monday 9 February 2015

सिंहस्थ में इक्कठे हुए अखाड़े (simhasths 2016)

धार्मिक अखाडे:-
शैव संप्रदाय:-
भारत के धार्मिक सम्प्रदायों में शैवमत प्रमुख हैं। वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के अनुयायियों से इसके मानने वालों की सख्या अधिक है। शिव त्रिमूर्ति में से तीसरे हैं जिनका विशिष्ट कार्य संहार करना है शैव वह धार्मिक सम्प्रदाय हैं जो शिव को ही ईश्वर मानकर आराधना करता है। शिव का शाब्दिक अर्थ है ‘शुभ’, ‘कल्याण’, ‘मंगल’, श्रेयस्कर’ आदि, यद्यपि शिव का कार्य संहार करना है।
शैवमत का मूलरूप ऋग्वेद में रुद्र की कल्पना में मिलता है। रुद्र के भयंकर रूप की अभिव्यक्ति वर्षा के पूर्व झंझावात के रूप में होती थी। रुद्र के उपासकों ने अनुभव किया कि झंझावात के पश्चात जगत को जीवन प्रदान करने वाला शीतल जल बरसता है और उसके पश्चात एक गम्भीर शान्ति और आनन्द का वातावरण निर्मित हो जाता है। अतः रुद्र का ही दूसरा सौम्य रूप शिव जनमानस में स्थिर हो गया।
हिंदुओं के देवताओं की त्रिमूर्ति- ब्रह्मा, विष्णु और महेश में शिव विद्यमान हैं और उन्हें विनाश का देवता भी माना जाता है।
शिव के तीन नाम शम्भु, शंकर और शिव प्रसिद्ध हुए। इन्हीं नामों से उनकी प्रार्थना होने लगी।
यजुर्वेद के शतरुद्रिय अध्याय, तैत्तिरीय आरण्यक और श्वेताश्वतर उपनिषद में शिव को ईश्वर माना गया है। उनके पशुपति रूप का संकेत सबसे पहले अथर्वशिरस उपनिषद में पाया जाता है, जिसमें पशु, पाश, पशुपति आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। इससे लगता है कि उस समय से पशुपात सम्प्रदाय बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी।
रामायण-महाभारत के समय तक शैवमत शैव अथवा माहेश्वर नाम से प्रसिद्ध हो चुका था।
महाभारत में माहेश्वरों के चार सम्प्रदाय बतलाये गये हैं -
1.शैव
2.पाशुपत
3.कालदमन और
4.कापालिक।
वैष्णव आचार्य यामुनाचार्य ने कालदमन को ही ‘कालमुख’ कहा है। इनमें से अन्तिम दो नाम शिव को रुद्र तथा भंयकर रूप में सूचित करते हैं, जब प्रथम दो शिव के सौम्य रूप को स्वीकार करते हैं। इनके धार्मिक साहित्य को शैवमत कहा जाता है। इनमें से कुछ वैदिक और शेष अवैदिक हैं। सम्प्रदाय के रूप में पाशुपत मत का संघटन बहुत पहले प्रारम्भ हो गया था। इसके संस्थापक आचार्य लकुलीश थे। इनहोंने लकुल (लकुट) धारी शिव की उपासना का प्रचार किया, जिसमें शिव का रुद्र रूप अभी वर्तमान था। इसकी प्रतिक्रिया में अद्वैत दर्शन के आधार पर समयाचारी वैदिक शैव मत का संघटन सम्प्रदाय के रूप में हुआ। इसकी पूजा पध्दति में शिव के सौम्य रूप की प्रधानता थी। किन्तु इस अद्वैत शैव सम्प्रदाय की भी प्रतिक्रिया हुई। ग्यारहवीं शताब्दी में वीरशैव अथवा ‘लिंगायत सम्प्रदाय’ का उदय हुआ, जिसका दार्शनिक आधार शक्तिविशिष्ट अद्वैतवाद था।
कापालिकों ने भी अपना साम्प्रदायिक संघटन किया। इनके साम्प्रदायिक चिह्न इनकी छः मुद्रिकाएँ थीं, जो इस प्रकार हैं-
1.कंठहार
2.आभूषण
3.कर्णाभूषण
4.चूड़ामणि
5.भस्म और
6.यज्ञोपवीत।
इनके आचार शिव के घोर रूप के अनुसार बड़े वीभत्स थे, जैसे कपालपात्र में भोजन, शव के भस्म को शरीर पर लगाना, भस्मभक्षण, यष्टिधारण, मदिरापात्र रखना, मदिरापात्र का आसन बनाकर पूजा का अनुष्ठान्करना आदि। कालमुख साहित्य में कहा गया है कि इस प्रकार के आचरण से लौकिक और पारलौकिक सभी कामनाओं की पूर्ति होती है। इसमें सन्देह नहीं की कापालिका क्रियायँ शुध्द शैवमत से बहुत दूर चली गयीं और इनका मेल वाममार्गी शाक्तों से अधिक हो गया।
पहले शैवमत के मुख्यतः दो ही सम्प्रदाय थे-
पाशुपत और
आगमिक।
फिर इन्हीं से कई उपसम्प्रदाय हुए, जिनकी सूची निम्नांकित है -
1.पाशुपात शैव मत
2.पाशुपात,
3.लघुलीश पाशुपत,
4.कापालिक,
5.नाथ सम्प्रदाय,
6.गोरख पन्थ,
7.रंगेश्वर।
8.आगमिक शैव मत
पाशुपत सम्प्रदाय का आधारग्रन्थ महेश्वर द्वारा रचित ‘पाशुपतसुत्र’ है। इसके ऊपर कौण्डिन्यरचित ‘पंचार्थीभाष्य’ है। इसके अनुसार पदार्थों की संख्या पाँच है-
कार्य,कारण,योग,विधि औरदुःखान्त्।
जीव (जीवात्मा) और जड (जगत) को कार्य कहा जाता है। परमात्मा (शिव) इनका कारण है, जिसको पति कहा जाता है। जीव पशु और जड पाश कहलाता है। मानसिक क्रियाओं के द्वारा पशु और पति के संयोग को योग कहते हैं। जिस मार्ग से पति की प्राप्ति होती है उसे विधि की संज्ञा दी गयी है। पूजाविधि में निम्नांकित क्रियाएँ आवश्यक है-
हँसना,गाना,नाचना,हुंकारना औरनमस्कार।
संसार में दुखों से आत्यन्तिक निवृत्ति ही दुःखान्त अथवा मोक्ष है।
आगमिक शैवों के शैव सिध्दान्त के ग्रन्थ संस्कृत और तमिल दोनों में हैं। इनके पति, पशु और पाश इन तीन मूल तत्वों का गम्भीर विवेचन पाया जाता है। इनके अनुसार जीव पशु है जो अज्ञ और अणु हैं। जीव पशु चार प्रकार के पाशों से बध्द हैं। यथा –मल, कर्म, माया और रोध शक्ति। साधना के द्वारा जब पशु पर पति का शक्तिपात (अनुग्रह) होता है तब वह पाश से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहते हैं।
कश्मीर शैव मत दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवादी है। अद्वैत वेदान्त और काश्मीर शैव मत में साम्प्रदायिक अन्तर इतना है कि अद्वैतवाद का ब्रह्म निष्क्रिय है किन्तु कश्मीर शैवमत का ब्रह्म (परमेश्वर) कर्तृत्वसम्पन्न है। अद्वैतवाद में ज्ञान की प्रधानता है, उसके साथ भक्ति का सामञ्जस्य पूरा नहीं बैठता; कश्मीर शैवमत में ज्ञान और भक्ति का सुन्दर समवन्य है। अद्वैतवाद वेदान्त में जगत ब्रह्म का विवर्त (भ्रम) है। कश्मीर शैवमत में जगत ब्रह्म का स्वातन्त्र्य अथवा आभास है। कश्मीर शैव की दो प्रमुख शाखाऐं हैं–
स्पन्द शास्त्र औरप्रत्यभिज्ञा शास्त्र।
पहली शाखा के मुख्य ग्रन्थ ‘शिव दृष्टि’ (सोमानन्द कृत), ‘ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका’ (उत्पलाचार्य कृत), ईश्वरप्र्त्यभिज्ञाकारिकाविमर्शिनी’ और (अभिनवगुप्त रचित) ‘तन्त्रालोक’ हैं। दोनों शाखाओं में कोई तात्त्विक भेद नहीं है; केवल मार्ग का भेद है। स्पन्द शास्त्र में ईश्वराद्वय्की अनुभूति का मार्ग ईश्वरदर्शन और उसके द्वारा मलनिवारण है। प्रत्यभिज्ञाशास्त्र में ईश्वर के रूप में अपनी प्रत्यभिज्ञा (पुनरनुभूति) ही वह मार्ग है। इन दोनों शाखाओं के दर्शन को ‘त्रिकदर्शन’ अथवा ईश्वराद्वयवाद’ कहा जाता है।
शैवमत के प्रधानतया चार सम्प्रदाय माने जाते हैं-
पाशुपत,
शैवसिद्धान्त,
कश्मीर शैवमत और
वीर शैवमत।
पहले का केन्द्र गुजरात और राजपूताना, दूसरे का तमिल प्रदेश, तीसरे का कश्मीर और चौथे का कर्नाटक है।
वीर शैव मत के संस्थापक महात्मा वसव थे। इस सम्प्रदाय के मुख्य ग्रन्थ ब्रह्म सूत्र पर ‘श्रीकरभाष्य’ और ‘सिध्दान्त-शिखामणि’ हैं। इनके अनुसार अन्तिम तत्त्व अद्वैत नहीं, अपितु विशिष्टाद्वैत है। यह सम्प्रदाय मानता है कि परम तत्त्व शिव पूर्ण स्वातन्त्र्यरुप है। स्थुल चिदचिच्छक्ति विशिष्ट जीव और सूक्ष्म चिदचिच्छक्ति विशिष्ट शिव का अद्वैत है। वीर शैव मत को लिंगायत भी कहते हैं, क्योंकि इसके अनुयायी बराबर शिवलिंग गले में धारण करते हैं।
शैव सन्यासी संप्रदाय अखाड़ों का इतिहास सबसे पुराना है. इस समय इस संप्रदाय के अखाड़े से 5 लाख साधु-सन्यासी जुड़े हुए हैं. इस संप्रदाय के बहुत सारे अखाड़े और मठ हैं. ये सभी दसनामी संप्रदाय में आते हैं. वैष्णव और उदासीन संप्रदाय के अलग अखाड़े हैं.
सबसे पुराने इस अखाड़े का स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है. अखाड़ों का आज जो स्वरूप है उस रूप में पहला अखाड़ा ‘अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई. में सामने आया था. इसका मेन ऑफिस काशी में है और इसके ब्रांच सभी कुम्भ तीर्थों पर हैं. इस संप्रदाय में आने वाले 7 प्रमुख अखाड़ें हैं.
1- श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी- इसका मठ दारागंज, प्रयाग इलाहाबाद में है. इस अखाड़ा के संत हैं – श्रीमहंत योगेन्द्र गिरी और श्रीमहंत जगदीश पुरीजी.
2- श्री पंच अटल अखाड़ा- इसका मठ चक हनुमान, कटुआपुरा, काशी, वाराणसी में है. इस अखाड़ा के संत हैं- श्रीमहंत उदय गिरी और श्रीमहंत सनातन भारती.
3- श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी- इसका मठ 47/44 मोरी, दारागंज, प्रयाग इलाहाबाद में है. इस अखाड़े के संत हैं- श्रीमहंत रामानन्द पुरी और श्रीमहंत नरेन्द्र गिरी.
4- तपोनिधी आनन्द अखाड़ा पंचायती- इसके दो मठ हैं पहला स्वामी सागरनन्द आश्रम, त्र्यंम्बेकेश्वर, दूसरा श्रीसूर्य नारायण मन्दिर त्र्यंम्बेकेश्वर जिला- नासिक, महाराष्ट्र में है. इस मठ के संत है- श्रीमहंत संकरानन्द सरस्वती और श्रीमहंत धनराज गिरी.
5- श्री पंचदसनाम जूना अखाड़ा- इसका मठ भरा हनुमंगत, काशी वाराणसी में है. इस मठ के संत हैं- श्रीमहंत विद्यानन्द सरस्वती और श्रीमहंत प्रेम गिरी.
6- श्री पंचदसनाम अवाहन अखाड़ा- इसका मठ डी-17/122 दशासमद घाट काशी वाराणसी में है. इस मठ के संत हैं- श्रीमहंत कैलाश पुरी और श्रीमंहत सत्या गिरी.
7- श्री पंचदसनाम पंचागनी अखाड़ा- इसका मठ तलहटी गिरनार, पोस्ट- भावनाथ, जिला- जूनागढ़ गुजरात में है. इस मठ के संत हैं- श्रीमहंत अच्युतानन्दजी ब्रह्माचारी. दूसरा मठ सिद्ध काली पीठ गंगा पार काली मन्दिर हरिद्वार, उत्तराखंड में है जिसके संत हैं- श्रीमहंत कैलाश नन्दजी ब्रह्मचारी.
वैष्णव संप्रदाय:-
भगवान विष्णु को ईश्वर मानने वालों का सम्प्रदाय।
वैष्णव संप्रदाय के उप संप्रदाय वैष्णव के बहुत से उप संप्रदाय है- जैसे बैरागी, दास, रामानंद, वल्लभ, निम्बार्क, माध्व, राधावल्लभ, सखी, गौड़ीय आदि। वैष्णव का मूलरूप आदित्य या सूर्य देव की आराधना में मिलता है। भगवान विष्णु का वर्णन भी वेदों में मिलता है। पुराणों में विष्णु पुराण प्रमुख से प्रसिद्ध है। विष्णु का निवास समुद्र के भीतर माना गया है।
विष्णु के अवतार : शास्त्रों में विष्णु के 24 अवतार बताए हैं, लेकिन प्रमुख दस अवतार माने जाते हैं- मतस्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बु‍द्ध और कल्कि। 24 अवतारों का क्रम निम्न है-1.आदि परषु, 2.चार सनतकुमार, 3.वराह, 4.नारद, 5.नर-नारायण, 6. कपिल, 7दत्तात्रेय, 8.याज्ञ, 9.ऋषभ, 10.पृथु, 11.मतस्य, 12.कच्छप, 13.धनवंतरी, 14.मोहिनी, 15.नृसिंह, 16.हयग्रीव, 17.वामन, 18.परशुराम, 19.व्यास, 20.राम, 21.बलराम, 22.कृष्ण, 23.बुद्ध और 24.कल्कि।
वैष्णव ग्रंथ : ऋग्वेद में वैष्णव विचारधारा का उल्लेख मिलता है। ईश्वर संहिता, पाद्मतन्त, विष्णुसंहिता, शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, विष्णु पुराण आदि।
वैष्णव तीर्थ : बद्रीधाम (badrinath), मथुरा (mathura), अयोध्या (ayodhya), तिरुपति बालाजी, श्रीनाथ, द्वारकाधीश।
वैष्णव संस्कार : 1.वैष्णव मंदिर में विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियाँ होती हैं। एकेश्‍वरवाद के प्रति कट्टर नहीं है।, 2.इसके संन्यासी सिर मुंडाकर चोटी रखते हैं।, 3.इसके अनुयायी दशाकर्म के दौरान सिर मुंडाते वक्त चोटी रखते हैं।, 4.ये सभी अनुष्ठान दिन में करते हैं।, 5.यह सात्विक मंत्रों को महत्व देते हैं।, 6.जनेऊ धारण कर पितांबरी वस्त्र पहनते हैं और हाथ में कमंडल तथा दंडी रखते हैं।, 7.वैष्णव सूर्य पर आधारित व्रत उपवास करते हैं।, 8.वैष्णव दाह संस्कार की रीति हैं।, 10.यह चंदन का तीलक खड़ा लगाते हैं।
वैष्णव साधु-संत : वैष्णव साधुओं को आचार्य, संत, स्वामी आदि कहा जाता है।
1. निर्मोही अणि
2. दिगंबर अणि
3. निर्वान अणि
4. खाकी अखाड़ा
उदासीन पंथ :-
1. बड़ा उदासीन अखाड़ा, कृष्णनगर, कीटगंज, प्रयाग (उत्तर प्रदेश)
2. नया उदासीन अखाड़ा ,कनखल, हरिद्वार (उत्तराखंड)
3. निर्मल पंचायती अखाड़ा,कनखल, हरिद्वार (उत्तराखंड)
उदासीन का शाब्दिक अर्थ है उत्+आसीन= उत् = ऊंचा उठा हुआ अर्थात ब्रह्रा में आसीन = स्थित, समाधिस्थ।
जब यह सारा भूमण्डल जलमग्न था, भगवान विष्णु शेषशैय्या पर आसीन थे, उनकी नाभिकमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई और ब्रह्माजी से मानसिक सृष्टि की रचना हुई। तब, सर्वप्रथम सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार उत्पन्न हुए।
चारों कुमारों ने आजीवन ब्रह्राचर्यपूर्वक, त्यागनिष्ठायुक्त, तपश्चर्यापूर्वक जीवन व्यतीत करने का दृढ़ संकल्प लिया जो आज भी अजर-अमर बाल्यस्वरूप में मया प्रपंच से मुक्त, ब्रह्रा का चिन्तन करते हुए उदासीन रूप में परिभ्रमण कर रहे हैं। इन्हीं चारों मनीषियों से उदासीन साधुओं की परम्परा विकसित हुई।
मध्यकाल में सरस्वती की धारा के समान क्षीण होती हुई उदासीन परम्परा को श्रीविनाशी मुनि ने पुर्नजीवन दिया तथा 165वें आचार्य श्रीश्रीचन्द्र ने उसे अखण्डता प्रदान की।
उदासीन सम्प्रदाय के चारों धूनों और पांचों बख्शीशों; मींहा साहेबजी, भगत भगवानजी, दीवानाजी, अजीतमल्ल सोढ़ीजी, बख्तमल जीद्ध एवं दस उप बख्शीशों के उदासीन महात्माओं ने सम्पूर्ण भारत में धर्म और संस्कृति के प्रचार केन्द्रों की स्थापना की। इसी परंपरा में आगे चलकर संत निर्वाण प्रियतमदासजी हुए, जिनका उदासीन समाज को अपूर्व योगदान है।

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